जग जागे तब सवेरा
जब जागे तब सवेरा अनायास ही जब किसी चीज के बारे में बेमतलब और जबरदस्ती किया जाये तो एक हद तक ठीक भी है। मैं याद करता हु वो दिन जब बचपन में भले ही न कोई होशियारी,चालाकी और न ही सूझबूझ पर एक बात है हम सच्चे जरूर 100 परसेंट थे। ये उस शीर्षक के बारे में बात होने जा रही है जिसके शीर्षक का सारांश ही गुप्तनुमा है वैसे कुछ तो चीजे गुप्त होनी ही चाहिए पर क्या मतलब जो हमें दुःख देने का कारण बने तो ये भी सही नहीं है। जो चीज कभी हम सोच न सके आखिर क्यों इस तरह चली जा रही है खुद के मना करने के बावजूद ऐसा लगता है कभी कभी की यूँ ही चलता रहा तो मंजिल के रास्तो में कही थोड़ी धुंधलाहट आ ही जानी है। अगर ये सच है की बदल जाये तो आगे कही न कही जरूर अपने आप को सहायता जरूर मिलेगी। वैसे भी इस सब में किसी को दोषी ठहरा नहीं सकते हालाँकि तसल्लीनुमा जायज ठहराया जा सकता है। पर अब कोशिश तो यही रहेगी की इस नियमावली को ही सीढ़ी बनाकर आगे चला जायेगा। ( "डर लगता है कभी कभी ये जहाँ ये गुलिस्तां कही हमें पीछा छोड़कर आगे न निकल जाये" ) गली में